चलिस्सइ, हाइस्सइ =सं० करिष्यति, चलिष्यति, भविष्यति । अवधी में उच्चारण अपभ्रंश के अनुसार ही हैं पर व्रज में 'इ' के स्थान पर 'या वाली प्रवृत्ति के अनुसार करिहय(= करिहै, होयय होयहै)इत्यादि रूप हो जायेंगे । 'य' के पूर्व के 'आ' को लघु करके दोहरे रूप भी होते हैं-जैसे, अयहै = ऐहै, जयहै = जैहै, करयहै = करैहै इत्यादि । उत्तम पुरुष-खयहाँ = खैहौँ, अयहाँ = ऐहौँ, जयहाँ हौं ब्रजभाषा में बहुवचन के कारकचिह्वग्राही रूप में खड़ा बोली के समान 'ओ' (जैसे लड़कों को) नहीं होता, अवधी के समान 'न' होता है-जैसे, घोड़ान को, घोड़न को; छोरान को, छोरन को इत्यादि । अवधी में केवल दूसरा रूप होता है, पहला नहीं उ०-देखहु बनरन केरि ढिठाई ।-तुल्तसी। खड़ी बोली में कारक के चिह्न विभक्ति से पृथक हैं । विलायती मत कह कर हम इसका तिरस्कार नहीं कर सकते। इसका स्पष्ट प्रमाण खड़ी बोली के संबंधकारक के सर्वनाम में मिलता है-जैसे, किसका= सं० कस्य =प्रा० नपुं० किस्स + कारक चिह्न 'का' । काव्यों की पुरानी हिंदी में संबंध की "हि' विभुक्ति ( माग० 'ह', अप० 'हो') सब कारकों का काम दे जाती है। अवधी में अब भी सर्वनाम में कारकचिव लगने के पहले यह 'हि' आता है जैसे 'केहिकाँ' ( पुराना रूप केहि कह), 'केहि कर' यद्यपि बोलचाल में अब यह 'हि' निक- लता जा रहा है। ब्रजभाषा से इस 'हि' को उड़े बहुत दिन
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