पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/७०

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(५)

रहे वाहक रूप में कोउ तिन्हैं जान्यो नाहिं।
देवगण वा दिवस बिचरे मिले मनुजन माहिं।
रह्यो स्वर्ग उछाह सौँ भरि गुनि जगत कल्यान,
जानि यह नरलोक में पुनि अवतरे भगवान।

नृप यह जान्यो नाहिं रही चिन्ता चित व्यापी।
कह्यो गणकगण आय, पुत्र यह परम प्रतापी।
चक्रवर्त्ति यह सोइ भूमि भोगन जीवन भर
आवत है जो प्रति सहस्र वत्सर या भू पर।
सात रत्न यहि सुलभ-प्रथम है चक्ररत्न वर,
अश्वरत्न जो भरि गुमान पग धरत मेघ पर;
हस्तिरत्न हिम सरिस श्वेत वाहन सुन्दर अति;
नीतिविशारद सचिव तथा दुर्जय सेनापति;
भार्य्या अनुपम रूपवती युवती सुकुमारी,
रमणीरत्न अमोल उषा सोँ बढ़ि उजियारी"।
सुनि सुत-वैभव नृपति हरषि अनुशासन फेरो
'उत्सव और उछाह नगर में होय घनेरो'।

सब बाट जाति बहारि, चंदननीर छिरको जात है।
दमकत द्रुमन पै दीप, फहरत केतु बहु दरसात हैं।
सजि सूर खाँड़े धारि कर में करत आसन पैतरे।
नट इंद्रजालिक-खेल देखत लोग कहुँ अचरज भरे।