कहुँ नर्त्तकी चुनि चूनरी, पग घूँघरू झनकारतीं,
निज चपल चरनन के चहूँ दिशि मंद हास उभारतीं।
तीतर बटेर बटोरि कोऊ कतहुँ रहे लड़ाय हैं।
बैठे मदारी कतहुँ मर्कट भालु रहे नचाय हैं।
इत भिरत मोटे मल्ल नाना दाँव पेच दिखाय कै।
उत वाद्यकार मृदंग ढोल बजाय साज मिलाय कै
आलाप छाँड़त बीन की झनकार मंजु उठाय हैं,
योँ देत रसिक-समाज को बदि बदि हियो हुलसाय हैं।
बहु बणिक आए दूर तें संवाद शुभ यह पायकै
लै भेंट की बहु वस्तु सुंदर कनक थार सजायकै-
कौशेय अंशुक चीन के, नव शाल बहु कश्मीर के,
मणि पुष्पराग, प्रवाल, मोती सुघर सागर तीर के।
सुंदर खिलौनन के मनोहर मेल कहुँ सोहत धरे;
घनसार, कुंकुम, अगर, मृगमद, भार चंदन के भरे।
कोउ धरत अंबर धूपछाँह सुरंग झीने लाय हैं,
नहिं जासु बारह पर्त सकत सलज्ज वदन छपाय हैं।
सारी किनारी जासु मोतिन सोँ जरी अति झलझली,
अति भव्य भूषण, वसन, भाजन, फलन फूलन की डली,
बहु भेंट पठवत करद पुर, सब भवन भूपति को भरो।
'सिद्धार्थ' वा 'सर्वार्थसिद्ध' कुमार नाम गयो धरो।
पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/७१
दिखावट
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(६)