पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/७२

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(७)

आए अपरिचित जनन मेँ ऋषि असित परम पुनीत
संसार सोँ फिरि श्रवण जिनके सुनत सुर-संगीत
अश्वत्थ तर बैठे रहे जो धरे अपनो ध्यान;
तहँ बुद्ध-जन्म-उछाह को सुनि पर्यो नभ में गान।

सोहत पुराणप्रवीण पूर्ण प्रकार तपबल पाय।
सम्मान साँ नियराय नरपति परे पाँयन जाय।
उत महारानी आय पाँयन पै दियो सिसु डारि;
पै देखि ताहि मुनीश चरनन टारि उठे पुकारि-

"हे देवि! करती कहा?" पुनि शिशु-चरनरज सिर लाय
मुनि कह्यो "हौ तुम सोइ बंदन करत हौँ सिर नाय।
मृदु ज्योति लसति अपूर्व, स्वस्तिक चिह्न सो दरसात,
बत्तीस लक्षण मुख्य, अनुव्यंजन असी अवदात।

हौ बुद्ध; धर्म सिखाय करिहौ लोक को उद्धार;
अनुसरण करिहैं जीव जे ते होयहैं भव पार।
तब ताइँ रहिहौँ नाहिं, मेरी अवधि गइ नियराय।
तन राखि करिहौं कहा ह्वै कृतकृत्य दर्शन पाय?

भूपाल परम सुजान! जानौ कली है यह सोय
कल्पांत में कहुँ एक बार विकाश जाको होय;
जग ज्ञान-सौरभ, प्रेम के मकरंद सौँ भरि जाय;
तब राजकुल में आज यह अरविंद फूट्यो आय।