"कहौ, सचिववर! कौन नरन में अति विद्वान कहावै;
राजपुत्र के जोग सकल गुण जो मम सुतहिं सिखावै।
कह्यो एक स्वर सों सब मिलि के "सुनौ, नृपति! यह बानी,
विश्वाभित्र समान न कोऊ बुद्धिमान् औ ज्ञानी।
वेद-विषय-पारंगत सब विधि, शास्त्रज्ञान में रूरो,
धनुर्वेद में चतुर लसत सो, सकल कला में पूरी।"
विश्वामित्र आय नृप आज्ञा सुनी, अमित सुख पायो।
शुभ दिन औ शुभ घरी माहिं पुनि कुँवर पढ़न को आयो।
रत्ननजरी रँगी चंदन की पाटी काँख दबाई
लिए लेखनी गुरु समीप भे ठाढ़े दीठि नवाई।
तब बोले आचार्य्य "वत्स! तुम लिखौ मंत्र यह सारो"।
यौँ कहि पावन गायत्री को मूल मंत्र उच्चारो
धीमे स्वर सों, सुनै न जासों कोउ निषिद्ध नर नारी;
सुनिबे के केवल हैं जाके तीन वर्ण अधिकारी ।
"लिखत अबै, आचार्य्य!" कुँवर बोल्यो विनीत स्वर।
लिख्यो अनेकन लिपिन मंत्र पावन पाटी पर।
ब्राह्मी, दक्षिण, देव, उग्र, मांगल्य, अंग लिपि,
दरद, खास्य, मध्याक्षर-विस्तर, मगध, बंग लिपि,
औ खरोष्ट्री, यक्ष, नाग, किन्नर, सागर पुनि
लिखि दिखराए कुँवर सबन के अक्षर चुनि चुनि।
मग शक आदिक के अक्षर हू छूटे नाहीं,
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