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पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/७४

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(१०)

सूर्य्य अग्नि की जो उपासना करत सदाहीं।
बोलिन में बहु चल्यो मंत्र सावित्री पुनि भनि
कह्यो गुरू "बस करौ, चलो अब तो गनती गनि।
कहत चलौ मम साथ नाम संख्यन को तोलौँ
पहुँचि जायँ हम, कुँवर! लाख पर्य्यंत न जौ लौँ।
कहत एक, द्वै, तीन, चार ते दस लौ जाओ,
दस तें सौ लौँ, पुनि सौ तें चलि महस गनाओ।"
ता पाछे गनि गयो कुँवर एकाइ दहाई,
शत सहस्र औ अयुत लक्ष लौँ पहुँच्यो जाई,
गनत गयो कहुँ रुक्यो नाहिं सो कुँवर सयानो
"ताके आगे प्रयुत कोटि औ अर्बुद मानो।
पद्म, खर्व औ महाखर्व औ महापद्म पुनि।"
असंख्येय लौँ गनत गयो, सुनि चकित भए मुनि।
बोले मुनि "है बहुत ठीक, हे कुँवर हमारे
अब आयत परिमाण बताऊँ तुमको सारे"।
यह सुनि राजकुमार वचन बोल्यो विनीत अति
"श्रवण करी, आचार्य! कहत हैं। सकल यथामति।
दस परमाणुन को मिलाय परिसूक्ष्म कहत हैं
जोरे दस परिसूक्ष्म एक त्रसरेणु लहत हैं।
देत सप्त त्रसरेणु-योग अणु एक बनाई*[]
भवनरंध्रगत रविकर में जो परत लखाई।


  1. * यह मान वैशेषिक आदि में माने हुए मान से भिन्न है।