पृष्ठ:बुद्ध और बौद्ध धर्म.djvu/१२७

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बुद्ध और बौद्ध-धर्म दूसरी सभा के निर्णीत सिद्धान्तों को 'महासांघिक वाद' कहा गया है; उसे गौणरूप से यह दर्शन स्वीकार करता है। बौद्ध सम्प्रदाय में इसे 'वाहास्थिरवाणी' कहा गया है। इस दर्शन को प्रार म्भिक रूप देनेवाला कनिष्क-कालीन धर्मोत्तरका उत्तरधर्म नामका आचार्य था : किन्तु चीनी यात्री हुएनसाँग के मत में इसका आचार्य तक्षशिला का प्रसिद्ध आचार्य और प्रवर्तक कुमारलब्ध था, जोकि नागार्जुन और अश्वघोष का समकालीन था । श्रीलब्ध आचार्य ने सौमान्तिक ग्रंथ विभापाशास्त्र लिखा है। २-वैभाषिक दर्शन-बाह्य और आन्तरिक जगत् को मानता है, और प्रायः टीकाओं पर निर्भर करने से वैभाषिक नाम पड़ा। ३. योगाचार-विज्ञानाद्वैतवादी, केवल ज्ञान ही को मान्य करता है। ३०० ईसवी में इसकी रचना हुई है। ४-माध्यमिक शून्याद्वैतवादी । नागार्जुनसिद्ध इसके प्रव- तक हैं। इसके सिद्धान्तों का वर्णन प्रज्ञा-पारमिता में भी मिलता है। इस साहित्य की सूची यह है- महायान साहित्य (संस्कृत) १-सूत्र उपदेश, २-विनय विभाषा,३-अभिधर्म विभाषा। पाली त्रिपटिक का विषय स्वतन्त्र ढंग से संस्कृत में सम्पादन किया गया है। नवधर्म- १-अष्ट सहस्र का प्रज्ञापारमिता (८ हजार श्लोक साधुचार्य) २-नाण्ड-व्यूह