पृष्ठ:बुद्ध और बौद्ध धर्म.djvu/१६५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

बुद्ध और बौद्ध धर्म १७८ उनका कोई फल नहीं होता। परन्तु इसके विरुद्ध धर्म-कार्य करना बहुत ही अधिक यश की बात है। गुलामों और नौकरों पर यथो- चित ध्यान रखना और सम्बन्धियों तथा शिक्षकों का सत्कार करना प्रशंसनीय है । जीवों पर दया और ब्राह्मणों तथा श्रीमनों को दान देना प्रशंसनीय है। मैं इन तथा ऐसे ही अन्य भलाई के कार्यों को धर्म-कार्य का करना कहता हूँ। पिता या पुत्र, भाई या गुरु को कहना चाहिए कि यही प्रशंसनीय है, और इसी का साधन तबतक करना चाहिए जबतक उद्देश्य प्राप्तन हो जाय । यह कहा जाता है कि दान देना प्रशंसनीय है, परन्तु कोई दान इतना प्रशंसनीय नहीं, जितना धर्म का दान अर्थात् धर्म की शिक्षा देना। इसलिए मित्र, सम्बन्धी या संगी को यह सम्मति देनी चाहिए कि अमुक-अमुक अवस्थाओं में यह करना चाहिए-यह प्रशंसनीय है। इसमें विश्वास रखना चाहिए कि ऐसे आचरण से स्वर्ग मिलता है, और मनुष्य को उत्साह के साथ उसे स्वर्ग का मार्ग समझकर करना चाहिए। सूचना १०- देवताओं का प्रिय राजा पियदसी इसके अतिरिक्त किसी प्रकार के यश वा कीर्ति को पूर्ण नहीं समझता कि उसकी प्रजा वर्तमान में और भविष्य में उसके धर्म को माने, और उसके धर्म के कार्य करे। इसी यश और कीर्ति को देवताओं का प्रिय राजा पियदसी चाहता है। देवताओं के प्रिय राजा पियदसी के सब उद्योग आगामी जीवन में मिलनेवाले फलों के लिए तथा जीवन-मरण से बचने के लिए हैं, क्योंकि जीवन-मरण दुःख है। परन्तु इस फल