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पृष्ठ:बुद्ध और बौद्ध धर्म.djvu/२०

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१७ महान् बुद्ध अपना धर्म प्रकट करने के १५वें वर्ष वह फिर कपिलवस्तु गया और वहाँ उसने अपने चचेरे भाई महानाम से धर्म-चर्चा की, जो उसके पिता शुद्धोधन के उत्तराधिकारी भद्रक के स्थान पर शाक्यों का राजा हुआ था। १७वें वर्ष उसने श्रीमती नामक वेश्या की मृत्यु पर व्याख्यान दिया; १८वें वर्ष उसने एक जुलाहे को सान्त्वना दी, जिसकी पुत्री किसी दुर्घटना-वश मर गई थी; १६वें वर्ष में उसने एक हिरण को छुड़ाया और जो शिकारी इस हिरण को मारना चाहता था उसे बौद्ध बनाया; २०वें वर्ष में उसने चुलियवन के प्रसिद्ध डाकू अंगुलीमाल को अपना शिष्य बनाया। इसके पश्चात् बुद्ध २५ वर्ष तक गंगा की घाटियों में ही घूमता रहा और दुःखी तथा गरीब मनुष्यों के गाँवों में जा-जाकर उन्हें उपदेश देता रहा । अगण्य मनुष्य छोटे और बड़े, निर्धन और धनवान् उसके शिष्य बने । उसने सब पर अपने नियमों को प्रकट किया। उसके पवित्र जीवन, सहानुभूति-पूर्ण व्यवहार, और पवित्र धर्म की बड़ी भारी विख्याति हुई और उसके शिष्य भी बड़े आदर से माने जाने लगे। प्रजा और राजा दोनों ही उसके प्रति आदर के भाव रखते थे। वह ८० वर्ष की अवस्था में मरा और इसके पूर्व ही उसके धर्म ने संसार में बड़ी प्रबलता और दृढ़ता स्थापित कर ली थी, जोकि किसी ब्राह्मण, सामन या देवता के द्वारा इस संसार से नहीं उठाई जा सकती थी। उसकी मृत्यु के पहले की घटनाओं का सम्पूर्ण वृत्तान्त बौद्ध