बुद्ध और बौद्ध-धर्म २२० सा अंश था। इसलिए जो भापा इसके कर्मचारियों, व्यापारियों आदि द्वारा बोली जाती थी, वह और प्रान्तीय भाषाओं में प्रधान हो गई। यों तो ये सभी भाषायें एक-दूसरे से मिलती-जुलती थीं। यही कौशल की भापा पाली का मूल हुई । बहुत-से विद्वानों की सम्मति है कि इसका संस्कृत अर्थात् विशुद्ध रूप वह था, जो अवन्ती में बोला जाता था। अवन्ती-विद्या का केन्द्र था, इसीलिए वहाँ भाषा मार्जित हो गई । पीछ जब मगध-साम्राज्य का केन्द्र हुआ, तो इस भापा पर मगध की बोली का रंग चढ़ा। अतः पाली कौशल,श्रवन्ती और मगध की बोलियों की एक प्रकार की खिचड़ी थी। इसलिए यह प्रायः सारे देश में सुगमता से समझी जाती थी। राजकार्य में भी इसीलिए इससे काम लिया जाता था । बुद्ध और महावीर-ऐसे उपदेष्टा भी इसीसे काम लेते थे। परन्तु पाली. का रूप सदैव एक-सा न रहा । पहले-पहल तो शुद्ध पाली प्रच- लित थी, पीछे से शिलालेखों और राजपत्रों तथा धर्म-ग्रन्थों में उसके शब्दों के मार्जित रूप दिये जाने लगे। लेखकों ने यह प्रयत्न करना प्रारंभ किया कि जहाँतक हो सके, ऐसे शब्द लिखे जायें, जो लेखक की विद्वता प्रकाशित करें। अशोक के समय में यह प्रवृत्ति बहुँत बढ़ गई; यह बात उनके शिला-लेखों से स्पष्ट है। परिणाम यह हुआ कि पाली का रूप धीरे-धीरे संस्कृत से मिलने लगा, यहाँतक कि उसका स्थान सर्वत्र संस्कृत ने ले लिया। यह तो लेखों की भापा हुई, बोल-चाल की भाषा के लिए कोई पुष्ट प्रमाण नहीं मिलता, पर जब विद्वानों की ऐसी प्रवृत्ति थी, तो
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