बौद्ध काल का सामाजिक जीनव प्रासाद' कहा गया है। मन्दिरों और मठों के आकार गुम्मजाकार होते थे। इनके प्रधान फाटक पर एक शिखर होता था। जिस पर खुदाई का काम होता था । पूर्व की ओर कमलदल की आकृति की एक खिड़को होती थी, जिसके द्वारा प्रकाश, प्रभात होते ही पवित्र स्थान पर पड़ता था, जो घर में नियुक्त था। चन्द्रगुप्त के काल तक बौद्ध नगरों में न रहने पाते थे। उन्हें श्मशान के निकट रहने की आज्ञा था। वौद्ध अस्थि भस्म पर स्तूप बनाने लगे थे। फिर वहाँ रहने पर भी वह स्थान उनके प्रसिद्ध और पवित्र हो गए। मन्दिरों की बनावट ऐसी थी कि बाहर पर मण्डप होता था, और ऊपर या तो चौरस छत या गुम्बज होता था । मन्दिर के पीछे थोड़ा-सा स्थान पुजारियों या अन्य विशिष्ट पुरुषों के खड़े होने का होता था। इस अन्तराल कहते थे । अन्तराल के पीछे वह कोठरी होती थी, जिसमें मूर्ति या पूज्य-सामग्री होती थी। इस गर्भगृह कहते थे। यह चौकोर, गोल या अठपहलू तथा कमलाकार बनती श्री । इसके ऊपर स्तूप या शिखर होता था। सारनाथ में जिस ढंग से छातों के नीचे मूर्तियाँ बैठी हैं, वैसे ही तब भी होती थीं। ये छाते. छत्र या राज चिन्ह समझे गये थे। परन्तु ये सब परिवर्तन अशोक के बाद बड़ी शीघ्रता से हुए । अशोक के समय तक बुद्ध की पूजा नहीं होती थी। तव तक यं गुरु, पूज्य, संस्थापक और महात्मा थे। पर उपास्य देव नहीं। निर्वाण-प्राप्ति तब तक धर्मपालन से होती समझी जाती थी-उपा-
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