जुद्ध और बौद्ध-धर्म २३४ " , सना से नहीं। अलबत्ता उनकी अस्थियाँ और अंग प्रत्येक स्थान पर अवश्य गड़े थे। उनके प्रधान शिष्यों तक के उन स्थानों पर स्मारक बन गये थे, जहाँ-जहाँ विशेष घटनाएं हुई थी। परन्तु पीछे जो बुद्ध की मूर्ती पूजी गई, तो चीन, ब्रह्मा, जापान, कोरिया, तिब्बत, तुर्किस्तान, खोतान, श्याम, बर्मा, अनाम, कंबोडिया, जावा, लंका आदि दूर-दूर देशों तक में बुद्ध देव की स्वर्ण, रजक, ताँबा काँसा, पत्थर आदि को बनी प्रतिमा पुजने लगी। तत्कालीन शिल्पियों के सम्मुख एक कठिनाई थी। उन्हें मूर्ति बनाने की आज्ञा न थी, पर भावों द्वारा उनके जीवन की कठिनाई प्रदर्शित करने की आज्ञा थी। ऐसी दशा में बोधि गया में बोध होना, एक वटवृक्ष के नीचे एक वेदी, जिस पर वह पूज्य-सामग्री रखी है, बनाकर तथा सारनाथ में धर्मोपदेश देना, एक धर्म चक्र द्वारा कुसी नगर में देहान्त, एक स्तूप द्वारा समझाया गया। शिल्प के इन नमूनों के सिवा-गया के पास बराबर पहाड़ी में आजीवक साधुओं के लिये बना हुआ गुफा-गृह अच्छा उदा- हरण है। श्रावस्ती, काशी आदि नगरों में अशोक के जो स्मारक हैं, उनकी कारीगरी उच्च कोटि की है। सारनाथ का सिंह-स्तंम अपूर्व है। मारहुत और साँची के स्तूप इससे कुछ घटिया हैं। उस समय दो प्रकार के शिल्पी थे, एक प्रतिष्ठित-जो आचार्य कहाते थे, और उनका पद ब्राह्मणों के समान था । दूसरे जो संदिग्ध वंश के या वैश्या और शूद्र की उत्पत्ति से थे। अंशोक ने उज्जैन की गवर्नरी के काल में एक वैश्य की पुत्री ,
पृष्ठ:बुद्ध और बौद्ध धर्म.djvu/२२१
दिखावट