बुद्ध और चौद्ध-धन २६. वहाँ से वह फिर गया को गया. जहाँ केवल ब्राह्मणों ही के १००० घर थे। वहाँ से वह प्रसिद्ध बोधिवृक्ष और उसके पास के बिहार में गया, जो लगभग १६० या १७० फीट ऊँचा था और बहुत ही सुन्दर बेल-बूटों से भरा हुआ था । कहीं-कहीं गुथे हुए मोतियों की मूर्तियाँ बनी हुई थीं और कहीं वर्गीय ऋषियों की मूर्तियाँ । इन सब के चारों तरफ एक तांबे का सुनहला आमलक फल था और उसके निकट ही महाबोधि सङ्घाराम की बड़ी इमारत थी, जिसे एक लंका के राजा ने बनवाया था। उसकी छः दीवारें थीं और तीन खण्ड ऊँचे वुर्ज थे। ग्रह रक्षा के लिये तीस या चालीस फीट ऊँची दीवारों से घिरा हुआ था । वह लिखता है- "इसमें शिल्पकार ने अपनी पूरी चतुराई खर्च की है । वेल-बूट बड़े ही सुन्दर रंगों के हैं । वुद्ध की मूर्तियाँ सोने और चाँदी की बनी हुई और रलजटित हैं। स्तूप ऊँचे और बड़े हैं और उनमें सुन्दर काम हैं।" बोधिवृक्ष के निकट के स्थानों को, जब तक भारतवर्ष में बौद्ध- धर्म का प्रचार रहा, वौद्ध लोग पवित्र समझते थे। प्रति वर्ष चातु- मास की समाप्ति पर सव स्थानों से हजारों-लाखों धार्मिक पुरुष यहाँ पर एकत्रित होकर सात रात तक वे लोग इस जिले में भ्रमण करते धूप जलाते; पूजा करते, गाते-बजाते और फूलों की वर्षा करते थे। इससे एक-नई बात का पता चलता है कि उस समय के लोग भी वैसे ही धूम-धाम, प्रसन्नता और बाह्याडम्बर से उत्सव मनाते थे, जैसे कि उत्तरकालीन हिन्दू ।
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