२६५ नालन्दा विश्वविद्यालय (३) पालवंश हर्षवर्धन के बाद नालन्दा-महाबिहार का संरक्षण प्रधानतः पालवंशी राजाओं द्वारा होता रहा, पालों के आधिपत्य का सूत्रपात पाठवीं ईसवी सदी के प्रारम्भ से होता है। उस समय से बारहवीं सदी तक विश्वविद्यालय उन्हीं के संरक्षण में रहा । खुदाई में पालवंशियों की कई मुद्रायें मिली हैं। देवपाल के शिला- लेख से मालूम होता है कि उन्होंने वीरदेव को प्रधानाध्यक्ष बनाया था। पालवंश के प्रथम राजा "गोपालग (प्रथम) ने (ई०सन ७३०- ७६६) ओदंतपुर में एक विहार की स्थापना की और धर्मपाल ने (ई० सन् ७६६-८०६) विक्रमशिला में एक दूसरे बिहार की स्थापना की। फिर भी नालन्दा महाबिहार को इन पालवंशी राजाओं से समुचित सहायता मिलती गई। इन राजाओं के ऐसे शिला लेख मिले हैं, जिनमें विश्वविद्यालय के लिये दिये इनके दानों का उल्लेख है। "अष्ट साहस्रिका प्रज्ञापालिका की एक प्रतिलिपि इस वंश के अन्तिम राजा "गोविन्दपाल का नाम भी नालन्दा से सम्बद्ध है। 'श्रष्ट साहस्रिका प्रज्ञापालिका" की एक प्रतिलिपि नालन्दा में गोविन्दपाल के चौथे वर्ष (ई० सन ११६५) में तैयार हुई थी। इस के थोड़े ही दिन बाद मुसलमानों के हाथ से इस विशाल-विद्यालय का ध्वंस हुआ । इसके बाद फिर एक बार इसे पुनरुज्जीवित करने की चेष्टा का उल्लेख है। पर वह चेष्टा विफल हुई । अन्त में कुछ तीर्थिकों ने आग लगा कर इसे जला डाला।
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