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पृष्ठ:बुद्ध और बौद्ध धर्म.djvu/३०

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२७ के धार्मिक और दार्शनिक सिद्धान्त "अच्छा, जो अनित्य है-वह दुःखकर है या सुखकर ?" "दुःख, अर्थात् दुःखकर "अच्छा, जो अनित्य है और दुःख है, एवं स्वभाव से ही जो विविध प्रकार का परिणामशील या परिवर्तनशील है-इसके संबंध में क्या ऐसा सोचना युक्ति-संगत है कि 'यह हमारा है', 'यह हम हैं', और 'यह हमारी आत्मा है।' "नहीं भगवन् ! ऐसा सोचना युक्ति-संगत नहीं है।" आगे और भी लिखा है। (महावग्ग १-६-३८) "भिक्षुगण ! रूप अनात्मा है-अर्थात् रूप प्रात्मा नहीं है। रूप यदि आत्मा होता, तो वह पीड़ा के लिए न होता; किंतु हे भिक्षुगण ! जिस कारण से रूप आत्मा नहीं है, उसी कारण से वह पीड़ा के लिए है। यही अनित्य दुःख और अनात्मा का सिद्धांतवाद है। ४-निर्वाण-तृष्णाक्षय । बुद्ध का सिद्धान्त है कि काम अथवा तृष्णा का सर्वतो भाव से परित्याग करने से दुःख का निरोध होता है । और, इस तृष्णा नाश ही का नाम 'निर्वाण' है। इसीलिये निर्वाण का नाम 'तृष्णाक्षय' और दूसरा ' अनालय' है । प्रालय शब्द का अर्थ काम अथवा तृष्णा है । अतएव अनालय कहने से तृष्णा का क्षय ही समझना चाहिए। .