बुद्ध और बौद्ध-धर्म ५- वैदिक याग-यज्ञ और वेदों का प्रामाण्य । युद्ध ने हिंसानित वैदिक यज्ञों का परित्याग किया है। और, उन्होंने वेदों का प्रामाण्य भी स्वीकार नहीं किया। दोधनिकाय के अंतर्गत राजा महाविजित के यज्ञ का वर्णन करके बुद्धदेव ने कहा है- "हे ब्राह्मण! उस यज्ञ में गो-बध नहीं हुआ, छाग-वध नहीं हुआ, मेष-वध नहीं हुआ, कुक्कुट-बध नहीं हुआ, शूकर-वध नहीं हुआ, एवं अन्यान्य प्राणियों की भी हत्या नहीं हुई। इसी तरह यूप के लिए वृक्ष का छेदन नहीं हुआ, और श्रासन के लिए कुशोच्छेदन नहीं हुआ। उस स्थान पर भृत्य, किंकर और काम करने वालों को दंड द्वारा तर्जन नहीं करना पड़ा। यही क्यों? भय भी नहीं दिखाना पड़ा। वे लोग अश्रुमुख होकर रोते-रोते काम न करते थे। जोउनकी इच्छा हुई किया, जो इच्छा न हुई न किया। बह यज्ञ, घृत, तैल, नवनीत और दही, गुड़-मधु के द्वारा ही संपन्न हुआ था। इस प्रकार बुद्ध ने हिंसाश्रित यज्ञों की उपेक्षा और अहिंसा- श्रित यज्ञ की उपादेयता का वर्णन करके उत्तरोत्तर दानादि रूप उत्कृष्ट यज्ञ-समूहों का उल्लेख किया है। अंत में कहा है कि शील, समाधि और प्रजायज्ञ ही सबकी अपेक्षा उत्कृष्ट और महाफल- प्रद है। ब्राह्मण कूटदंत ने यज्ञ करने के लिए बहुत-से पशु एकत्रित किए थे। बुद्धदेव के सर्वोत्कृष्ट यज्ञ की बात सुनकर वह उत्फुल्ल हो उठा, बोला-"मैंने आपकी शरण ली है, मैंने ये सात सौ
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