३६ बुद्ध के धार्मिक और दार्शनिक सिद्धान्त खुला वरदान था। और वह लोग जातीय अन्यायों से बचने के लिए बड़ी उत्सुकता से इसे ग्रहण करते थे। थेरसुनीत कहता है-'मैं एक नीच वंश में उत्पन्न हुआ हूँ, मैं सूखे पत्तों को झाड़ने का काम किया करता था । मुझसे लोग घहुत घृणा करते थे। मैं सबके प्रति आज्ञाकारिता के भाव प्रकट करता और सबका सत्कार करता था । मैंने बुद्ध को भिक्षुओं सहित उस समय देखा जब वह मगध के सबसे प्रधान शहर में जा रहा था, तब मैंने अपना वोझा फेंक दिया और उसके निकट जाकर उसे दण्डवत की। मुझपर दया करके वह महान् पुरुष ठहर गया । मैंने उस महात्मा से प्रार्थना की कि वह मुझे भिन्नु बनाए, और उस दयालु ने कहा-हे भिक्षु ! इधर आओ, और मैं भिक्ष बनाया गया। बार-बार बुद्ध ने यह बतलाया है-"पवित्र उत्साह, पवित्र जीवन और आत्म-निरोध से मनुष्य ब्राह्मण होजाता है। यह सबसे उच्च ब्राह्मण का पद है। मनुष्य अपने गुथे हुए बालों से और अपने वंश अथवा जन्म से ब्राह्मण नहीं हो जाता; परन्तु जिसमें सत्य और पुण्य हो, वही ब्राह्मण है और वही धन्य है। बुद्ध कहता है-अरे मूर्ख ! गुथे हुए वालों की क्या आवश्यकता है। और यह मृगछाला भी धारण करना फिजूल है, अगर तेरे भीतर लालच भरा हुआ है । मैं तो उसे ही ब्राह्मण कहता हूँ जो महात्मा है और पूर्ण जागृत है, न नंगा रहने से, न जटा बढ़ाने से, न विभूति लगाने से और न मौन साधने से कोई मनुष्य अपने-
पृष्ठ:बुद्ध और बौद्ध धर्म.djvu/४२
दिखावट