, बुद्ध के धार्मिक और दार्शनिक सिद्धान्त विधानों को वह निरर्थक बताता है। इन तमाम विधानों की जगह उसने दयालु जीवन व्यतीत करने-मन, क्षोभ और कामनाओं को जीतने की आज्ञा दी है और उस उद्देश्य को प्राप्त करने की सरल रीति उसने इस संसार का त्याग बताया है। उसका यह उपदेश मानकर बौद्ध भिक्षुओं का एक बड़ा भारी सम्प्रदाय होगया। इस प्रकार बौद्ध-धर्म की सबसे बड़ी भारी विशेषता यह है कि वह इस लोक ही में निर्वाण प्राप्ति की सलाह देता है । वह परलोक के लिए कोई पुरस्कार नहीं देता । वह मनुष्य के स्वभाव की, सबसे अधिक निष्काम भावनाओं को उत्तेजित करता है। वह अपने पुण्य को अपने पुरस्कार की तरह देखता है और उसको प्राप्त करने का उद्योग करता है। वह शान्त और निष्पाप जीवन की प्राप्ति के अतिरिक्त मनुष्य में अथवा देवता में किसी उच्च उद्देश्य को नहीं जानता, वह पुण्यमय शान्ति के अतिरिक्त किसी मुक्ति को नहीं जानता, वह पवित्रता के अतिरिक्त किसी स्वर्ग को नहीं बताता । इस प्रकार हिन्दु लोग जिस काल्पनिक स्वर्ग की कल्पना करते आये हैं, उसे बुद्ध ने बिलकुल ही अपनी दृष्टि से निकाल दिया है। इस तरह बुद्ध ने इस संसार के इतिहास में सबसे पहले यह प्रकट किया कि प्रत्येक मनुष्य इस जोवन में बिना ईश्वर, देवता अथवा मनुष्य की सहायता के, स्वयं ही मुक्ति अर्थात् निर्वाण को प्राप्त कर सकता है।