पृष्ठ:बुद्ध और बौद्ध धर्म.djvu/६

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m महान् बुद्ध संसार के दुःखों से दूर रहने के लिए सन्मार्ग की खोज में अग्रसर हुँत्रा। इसके पूर्व वह निरन्तर मनुष्य-जाति के पाप और दुःखों पर गंभीरता और सहानुभूति के साथ विचार करता रहता था। उसने धन और अधिकार की निस्सारता को अच्छी तरह समझ लिया था । अधिकार और धन से अलग रहकर, वह कोई ऐसी वस्तु प्राप्त करने की खोज में था जो न तो धन और न अधिकार से मिल सकती थी। राजमहल के सुखों और विलास के जीवन में भी, उसके हृदय में मनुष्य-मात्र के दुःख दूर करने की अभिलाषा थी। और वह अमिलोपा एक प्रबल और अनिवार्य कामना हो उठी। उसने एक निर्बल, वृद्ध मनुष्य को देखा और जाना कि प्रत्येक मनुष्य को ऐसा होना अनिवार्य है। फिर उसने एक रोगी मनुष्य को देखा और जाना कि प्रत्येक मनुष्य इसी प्रकार रोगी हो सकता है। उसने एक वीतराग संन्यासी को देखा और उसकी इच्छा हुई कि वह भी सब-कुछ त्यागकर विरक्त वन जाय । इसी समय उसके एक पुत्र हुआ। पुत्र उत्पन्न होने का समा- चार जब उसे मिला, वह एक नदी के किनारे एक वाटिका में बैठा हुआ था । समाचार सुनते ही उसने कहा-यह एक नया और मजबूत बन्धन और तय्यार हुआ, जिसे अब तोड़ना ही पड़ेगा। जिस समय यह हर्ष समाचार सम्पूर्ण राज्य में बड़ी प्रसन्नता. के साथ सुना गया और राज्य-उत्तराधिकारी के जन्म के उपलक्ष में आनन्द और उल्लास की ध्वनि से कपिलवस्तु गूंज रहा था,