पृष्ठ:बुद्ध और बौद्ध धर्म.djvu/६७

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बुद्ध और बौद्ध-धर्म व्यवस्था की ठीक-ठीक परिभाषा बुद्ध के निर्वाण के बाद राजगृही की पहली सभा में हुई । इस समय संघ अपने नियन्त्रण में स्वतन्त्र था । वास्तव में यह एक बड़ी भारी कमी रह गई । इस समय सब अपनी-अपनी डफली बजाने लग गये थे और आपस में बिछुड़ गये थे। इतना होते हुए भी यह वात हमें कहनी पड़ेगी कि सभी संघ बुद्ध के वचनों को और नियमों को पूरी तरह पालते गये। उनमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ। निर्वाण के समय भगवान बुद्ध ने अपने शिष्यों से कहा- तुम यह मत सोचना कि तथागत की मृत्यु के बाद हमें शिक्षा देने वाला कोई न रहेगा। संघ के लिए हमने जो नियम बना दिये हैं, वही तुम्हारे गुरु और आचार्य का काम करेंगे। आगे चलकर प्रत्येक संघ में एक परिषद् होती थी, जोकि जरूरत के समय अपनी बैठक करती थी। उस बैठक में वे भिन्नु सम्मिलित होते थे, जिनको कि उपसम्पदा मिल गई हो । परिषद् को सम्मति देना और निर्णय करने का विशेष एक नियम बनाया गया था । भिन्न-भिन्न कार्य के लिए भिन्न-भिन्न प्रबन्ध-नियम थे। परिषद् जुड़ने पर आवश्यक प्रस्ताव उसके सामने रक्खा जाता था, उनपर विचार किया जाता था और उनपर बहुमत से फैसला होता था। विवादास्पद विषय किसी बड़े संघ को निर्णय के लिए भेजा जाता था और उसका फैसला सर्वथा माना जाता था। इसपर भी यदि निर्णय न होता था तो एक विशेष परिषद् बैठाई जाती थी, जिसमें बहुत बड़े-बड़े भिन्नु सम्मिलित किये जाते थे।