बुद्ध और बौद्ध-धर्म ८० प्रतीत्य समुत्पाद बौद्धों का दूसरा बड़ा सिद्धान्त है। नाशवान् वस्तुओं की उत्पत्ति अर्थात् जो वस्तु नष्ट हो जाती है, वह उत्पन्न होती है। उत्पत्ति मिथ्या है, क्योंकि न तो कोई वस्तु अपने-आप उत्पन्न हो सकती है, न दोनों के मिलने से, और न किसी हेतु के बिना। यदि कोई वस्तु है तो उसकी उत्पत्ति कैसी ! दूसरी चीज़ से उत्पन्न होने का अर्थ भी यही है कि जो वस्तु पहले थी उसीकी उत्पत्ति हुई । यदि यह कहो कि एक वस्तु के आश्रय से दूसरी वस्तु होती है तो किसी वस्तु के आश्रय से कोई भी वस्तु हो जानी चाहिए। कोई चीज न तो अपने-आप पैदा हो सकती है, न दूसरी चीजों से उत्पन्न हो सकती है, और न दोनों के मेल से ही। वह किसी हेतु के बिना भी उत्पन्न नहीं हो सकती। नहीं तो सब चीजें, सब काल में बन जायगी। इसलिए प्रतीत्य समुत्पाद का अर्थ मिथ्या दृश्यों से है, जोकि हमारी अविद्यायुक्त बुद्धि और इन्द्रियों को प्रतीत होते हैं और जो सत्य नहीं है, और अविद्या के कारण दृश्यमान हैं, यही प्रतीत्य समुत्पाद है। ज्ञान और संस्कारों के जितने भी रूप हैं, सब झूठे हैं और नष्ट होनेवाले हैं। केवल निर्वाण ही एक ऐसा धर्म है कि जो नष्ट नहीं होता। परन्तु यहाँ एक शंका होती है कि यदि दृश्यमान सब पदार्थ झूठे हैं तो उनकी सत्ता भी नहीं होनी चाहिए। न शुभाशुभ कर्म है, न भवचक है। यदि यही बात है तो उनके विषय में विचार-
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