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पृष्ठ:बुद्ध और बौद्ध धर्म.djvu/८४

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बौद्ध-संघ के भेद , विवेचन करना भी व्यर्थ है ; परन्तु बौद्ध-दर्शनकार कहते हैं- मनुष्यों को जो अन्ध-विश्वास है कि दृश्यमान सब वस्तुएँ सत्य हैं, इसी अन्ध-विश्वास को नष्ट करना शून्यवाद का प्रयत्न है । जो बुद्धिमान तत्वदर्शी पुरुष हैं, उन्हें कोई भी वस्तु सत्य या असत्य नहीं मालूम होती। उनके लिए वास्तव में ये चीजें हैं ही नहीं, वह धों के सत्य या असत्य होने के प्रश्न पर कुछ भी विचार नहीं करते । उनके लिए न कर्म है, न भव-चक्र ही है। जो वस्तु दिखाई ही नहीं देती तो उसका अस्तित्व कैसे कहा जा सकता है।जो वस्तु नहीं है, वह भूत, भविष्य अथवा वर्तमान नहीं हो सकती। न उसका नाश है, न उत्पत्ति अव यहाँ एक दूसरी शंका और होती है। कल्पना करो कि अगर कोई वस्तु सत्य ही नहीं है तो शून्यवादियों का यह कहना कि न तो उत्पत्ति है और न विध्वंस है, असत्य है । इसका उत्तर यह है कि शून्यवादियों के मत में तो केवल मौन ही सत्य है । जय वह कभी शास्त्रार्थ करते हैं तो अन्य लोग जिसको हेतु मानते हैं, उन्हें वह भी मान लेते हैं ; चूंकि न प्रत्येक वस्तु में सत्यता है, न सत्य का अनुभव है। और इसलिए जब वह प्रतीत्य समुत्पाद के सिद्धान्त से यह कहेंगे-"इसके होने से वह है। तो न उसमें सत्य है और न सत्य का स्वभाव ही है। प्रतीत्य समुत्पाद अथवा शून्यवाद का यह अर्थ है कि सब दृश्यमान् पदार्थों में न सार है, न सत्यता ही है । इसलिए यह कहा जा सकता है कि न वे उत्पन्न होते हैं और न नष्ट होते हैं।