बुद्ध और बौद्ध-धर्म ६२ पढ़ने और पढ़ाने के अतिरिक्त उनका और कोई कार्य न था। वहाँ पर बौद्ध-शास्त्र, न्याय-दर्शन, वेद, व्याकरण, चिकित्सा आदि प्रयोजनीय विषय पढ़ाये जाते थे । समस्त भारत एकाएक ज्ञानोदय के आलोक से आलोकित हो उठा । वह ज्ञान अति शीघ्रता से सारी पृथ्वी पर फैला । तिब्बत, चीन और कोरिया के सम्राद् बारम्बार दूत भेजकर बड़ी आराधनाओं से भारत के बौद्ध-महा पंडितों को अपने देश में ज्ञान विस्तार के लिए बुलाने लगे। तिब्बत, श्याम, चीन, तातार और अनाम इत्यादि दूर देशों से दल-क-दल लोग भक्ति, श्रद्धा को हृदयों में भरकर, भारत में आते, बौद्ध-साधुओं के चरणों में बैठते और संस्कृत अध्ययन करते तथा ढेर-के-ढेर ग्रन्थ साथ में स्वदेश ले जाते । ये ही ग्रंथ आज पुरातत्त्व के विद्वानों को तिब्बत, चीन, ब्रह्मा, जापान के देशों में मिले हैं । आज जिस प्रकार पृथ्वी यूरोप के ज्ञान से आलोकित हुई है, उसी प्रकार एक बार बौद्ध-ज्ञान से पृथ्वी आभारी हुई थी। सहस्रों भारतीय बौद्ध भिक्षु अपनी इच्छा से, स्वदेश त्याग कर, दिगदिगन्त में भारत का गौरव विस्तार करने के लिए जाते थे । वे लोग हिंसक जन्तुओं से भरे हुए वनों में, और मनुष्यभक्षी मनुष्यों की बस्ती से दुर्गम वन, नदी, गार, पर्वत और समुद्र सब को चीरते हुए उत्तर की ओर नैपाल, कश्मीर, तिब्बत, बलस्त्र, बुखारा, मंगोलिया, चीन, कोरिया और जापान; पश्चिम में काबुल सीरिया, पैलेस्टाइन, अफ्रिका, मिस्र और साइरिनी एवं यूरोप के सेसीडन तथा एपिरस प्रदेश में पूर्व में ब्रह्मा, कोचीन, चाइना,
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