पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/१०१

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अध्याय १ ब्राह्मण ४ । ब्रूयात्-कहै कि । ते-तेरा । प्रियम्-पुत्रादि पदार्थ । रोत्स्यतिः नष्ट हो आयगा ।+सा-वह आत्मज्ञानी तो । ह-अवश्य । तथा एव-ऐसा कहने को ईश्वर:समा स्यात् है । अतः इसलिये। प्रियम् आत्मानम्-अपने प्रिय प्रारमा की। एवम्ही । उपासीत उपासना करे । सःवह । यम्-गो। प्रियम्-प्रिय । आत्मानम्- मात्मा की । उपास्ते-उपासना करता है। अस्य ह उसका ही। प्रियम्-प्रिय पुत्रादिक । प्रमायुकम्मरणवाला । एव न-कभी नहीं । भवति होता है। भावार्थ । हे सौम्य ! यह अन्तःकरणविशिष्ट चैतन्य आत्मा सब वस्तुओं से प्यारा है, यह पुत्र से प्यारा है, धन से प्यारा है, क्योंकि अति निकट है, और जो कोई आत्मज्ञानी अनात्मज्ञानी से जो अपने से अपने पुत्रादिकों को प्रिय मानता है, कहे कि तेरा प्रिय पुत्रादि पदार्थ नष्ट हो जायगा तो उस आत्म- ज्ञानी का ऐसा कहा हुआ सत् होता है इसलिये पुरुष अपने आत्मा की ही सदा उपासना करता रहे, जो अपने प्रिय आत्मा को उपासना करता है उसका प्रिय पुत्रादिक मरण धर्मवाला कभी नहीं होता है ।। ८ ।। मन्त्र:8 तदाहुर्यद्ब्रह्मविद्यया सर्व भविष्यन्तो मनुष्या मन्यन्ते किमु तद्ब्रह्मावेद्यस्मात्तत्सर्वमभवदिति ।। पदच्छेदः। तत्, आहुः, यत्, ब्रह्मविद्यया, सर्वम्, भविष्यन्तः, मनुष्याः, मन्यन्ते, किमु, तत् , ब्रह्म, अवेत्, यस्मात्, तत्, सर्वम्, अभवत्, इति ॥. . 7.