अध्याय १ ब्राह्मण ४. आदीयमाने किसी एक पशु के चुरा लिये जाने पर । अप्रियम्- दुःख । + स्वामिनः उसके स्वामी को। भवति होता है। बहुपु-बहुतेरे पशु के चुरा जाने पर । किम् तस्य दशा भवि- प्यति-क्या उसकी दशा होगी । इदम् अनुभवाहम् यही घनुभव करने योग्य है। तस्मात् इसलिये । एपाम्-इन देव- तानों को । तत्ब्रह्मज्ञान । न-नहीं। प्रियम् प्रिय लगता है। + अतः इस ख्याल से कि । यत्-शायद । + ब्रह्मज्ञानेन% ब्रह्मज्ञान करके । मनुष्याम्मनुष्य । एतत्-इस ब्रह्म को। विदु:-कहीं जान जाय । भावार्थ । हे सौम्य ! सृष्टि के आदि में केवल एक ब्रह्म ही था, वही ब्रह्म जब अपने को जानता भया कि मैं ब्रह्म हूँ, तब वही सवरूप यानी व्यापक होता भया, तिसी कारण देव- ताओं में, ऋपियों में, मनुष्यों में, जो जो ज्ञानवान हुये वेही वेही, ब्रह्मस्वरूप होते भये, तिसी ब्रह्म को जान करके वाम- देव ऋषि भी ब्रह्मरूप होता भया, और कहने लगा कि सूर्य में ही हूँ, मनु मैं ही हूँ, और तिसी कारण आजकल के लोग जो इस प्रसिद्ध ब्रह्मज्ञानं को जानते हैं वह भी ऐसा कहते हैं कि मैं ब्रह्म हूँ, और वही सवरूप होते भी हैं। ऐसे ब्रह्मवेत्ता को कोई देवता एक बाल भी टेढ़ा नहीं कर सक्ता है, और जो पुरुप यह जानता है कि मैं और हूँ और देवता और हैं, और फिर उनकी उपासना करता है वह अज्ञानी निश्चय करके देवताओं का पशु है, और जैसे पशु मनुष्यों का पोषण करता है, उसी प्रकार एक एक अज्ञानी देवताओं का पोपण करता है, जब एक पशु के चुरा जाने . . v
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