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पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/१०८

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बृहदारण्यकोपनिपद् स० परन्तु । अन्ततः यज्ञ के अन्त में। स्वाम्-अपने । योनिम्: उत्पत्ति के स्थान यानी । ब्रह्म एव-वाराण के निकट । उपनि- श्रयति बैठता है। उ-और । यः-जो क्षत्रिय। एनम्याह्मण को। हिनस्ति तिरस्कृत करता है। सावह । स्वाम-अपने । योनिम्-उत्पत्ति के स्थान को । ऋच्छति-नाश करता है। +च-और । सः वह । + तथा वैसे ही। पापीयान् प्रति पातकी । भवति होता है। यथा जैसे कोई । श्रेयांसम्यपने से बड़े का। हिसित्वा तिरस्कार करके | + पापतरःपातकी। + भवति होता है। भावार्थ। हे सौम्य ! सृष्टि के आदि में केवल एक ब्राह्मण वर्ण था, वह ब्राह्मण वर्ण एक होने के कारण विशेष वृद्धि को नहीं प्राप्त हुआ, यानी अपनी रक्षा नहीं कर सका इस लिये उस ब्राह्मण वर्ण ने एक प्रशंसनीय क्षत्रिय जाति को उत्पन्न किया, और उन्हीं क्षत्रियों में बड़े बड़े महान् पुरुप जैसे गरुड़, वरुण, चन्द्रमा, रुद्र, इन्द्र, मृत्यु, वायु, यमराज आदि के नाम से विख्यात हैं, इसलिये क्षत्रिय जाति से और कोई श्रेष्ठ नहीं है, और यही कारण है कि राजसुय- यज्ञ में ब्राह्मण जो क्षत्रियों के उत्पत्ति का कारण है, क्षत्रिय राजा के नीचे बैठता है, और उसकी सेवा करता है, और क्षत्रिय विषे वह ब्राह्मण अपने यश को स्थापित करता है, ब्राह्मण ही क्षत्रिय के उत्पत्ति का स्थान है, इसी कारण यद्यपि राजा राजसूय यज्ञ में श्रेष्ठ पदवी को प्राप्त होता है परन्तु यज्ञ के समाप्त होने पर वह ब्राह्मण के निकट ही बैठता है, और जो क्षत्रिय ब्राह्मण को तिरस्कार करता है, वह