पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/१०९

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अध्याय १ ब्राह्मण ४. my अपने उत्पत्ति के स्थान को नाश करता है, और वह वैसे ही अति पातकी समझा जाता है, जैसे कोई अपने से बड़े को तिरस्कार करके पातकी होता है।॥ ११ ॥ मन्त्रः १२ . . स नैव व्यभवत्स विशमसृजत यान्येतानि देवजा- तानि गणश आख्यायन्ते वसवो रुद्रा आदित्या विश्वे- देवा मरुत इति । पदच्छेदः। सः, न, एव, व्यभवत्, सः, विशम्, असृजत, यानि, एतानि, देवजातानि, गणशः, आख्यायन्ते, वसवः, रुद्राः, आदित्याः, विश्वेदेवाः, मरुतः, इति ॥ अन्वय-पदार्थ। + यदा-जब । सःवह ब्राह्मण । + कर्मणे-द्रव्य · उपार्जन के लिये । न एक-नहीं । व्यभवत्-समर्थ हुना। तदा तब। सम्बह । विशम् वैश्यजाति को । असृजत-उत्पन्न करता भया । यानि जो । एतानिये । देवजातानिदेव वैश्य । गणश: गण ! + इति करके । आख्यायन्ते-कहे जाते हैं। + तेचे ! रुद्रा:ग्यारह श्रादित्याः धारह सूर्य । विश्वेदेवा-तेरह सूर्य । विश्वेदेवाःतेरह विश्वेदेव । ममतः सात वायु । इति + वैश्यजातिः + प्रसिद्धः वैश्यजाति करके प्रसिद्ध है। भावार्थ । हे सौम्य ! जब वह ब्रह्मा ( ब्राह्मण ) द्रव्य उपार्जन के करने में असमर्थ हुआ, तब वह . वैश्य जाति की सृष्टि को वसवः याठ वसु.।