पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/११०

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किंच। बृहदारण्यकोपनिषद् स० रचता भया, हे सौम्य ! जो यह सब देवगण कहे जाते हैं उनमें आठ वसु, ग्यारह रुद्र, बारह सूर्य, तरह विश्वदेव, सात वायुदंव वैश्यजाति करके प्रसिद्ध है ॥ १२ ॥ मन्त्रः १३ स नैव व्यभवत्स शौद्रं वर्णमसृजत पूपण मियं वे पूपेयं हीदं सर्व पुप्यति यदिदं किंच ।। पदच्छेदः। सः, न, एव, व्यभवत् , सः, शौद्रम् . वर्णन् , श्रख जत, पूपणम्, इयम्, वै, पूषा, इयम् , हि, इदम् , सर्वम् , पुप्पति, यत्, इदम्, अन्वय-पदार्थ । + यदा-जत्र । सावह पुरुष I + सर्वार्थम्पय पोषण के लिये । न एव नहीं । व्यभवत्पमर्थ होता भया । तदा%3 D तव । सा वह । पूपणम्-पोषण करनेवाले । शोद्रम्-एन । वर्णम्-वर्ण को । असृजत-उत्पन्न करता भया । इयम् हिD यही शूवजाति । च-निश्चय करके । पूपा-पुष्टि की है। + यथा जैसे । इयम्-यह पृथ्वी । इदम्-इस । सर्वम् सयको । पुण्यति-पुष्ट करती है । यत्-जो । किंचकुछ । इदम् यह है यानी इसके प्राधेय है। भावार्थ । हे सौम्य ! जब वह ब्राह्मण सबकी सेवा करने को समर्थ नहीं भया, तब उसने पोपण करनेवाले शूद्र वर्ण को उत्पन्न किया, यही शूद्र जाति निश्चय करके सबको पुष्ट करती है जैसे यह पृथ्वी सबको पुष्ट करती हैं ।। १३ ॥ -