. बृहदारण्यकोपनिषद् स० पर भी क्यों कम नहीं होते हैं उत्तर यह मिलता है कि पुरुप यानी अन्न का भोक्ता अविनाशी है, वही इस अन्न को वार- बार उत्पन्न करता है, और जो इस अन्न को अक्षत जानता है वही पुरुष अविनाशी होता है, क्योंकि इस अन्न को बुद्धि और कर्म करके उत्पन्न किया करता है, यदि वह पुरुष इस अन्न को उत्पन्न न किया करता तो वह अन्न अवश्य नाश हो जाता और जो ऐसा कहा है कि वह अन्न को मुख से खाता है उसका भाव यह है कि प्रतीक का अर्थ मुख इसलिये "मुखेन" यह पद मूल में कहा गया है, और जो मंत्र में यह कहा गया है कि वह पुरुष यानी अन्न का भोक्ता देवयोनि को प्राप्त होता है यह अन्नयज्ञ की प्रशंसा है ॥२॥ मन्त्रः ३ त्रीण्यात्मनेऽकुरुतेति मनो वाचं पाणं तान्यात्मने- ऽकुरुतान्यत्रमना अभूवं नादर्शमन्यत्रमना अभूवं नाऔप- मिति मनसा ह्येव पश्यत्ति मनसा शृणोति कामः संकल्पो विचिकित्सा श्रद्धाऽश्रद्धा धृतिरधृति( रित्येतत्सर्व मन एव तस्मादपि पृष्ठत उपस्पृष्टो मनसा विजानाति यः कश्च शब्दो वागेव सा एपा हन्तमायत्तपा हि न प्राणोऽपानो व्यान उदानः समानोऽन इत्येतत्सर्व प्राण एवैतन्मयो वा अयमात्मा वाड्मयो मनोमयः प्राणमयः॥ पदच्छेदः। त्रीणि, आत्मने, अकुरुत, इति, मनः, वाचम्, प्राणम् , तानि, आत्मने, अकुरुत, अन्यत्रमनाः, अभूवम्, न, अद- 5
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