पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/१३४

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११८ बृहदारण्यकोपनिपद् स० भधृति । ही लजा । धीम्युन्हि। भी भय । इति इस प्रकार । एतत्-ये । सर्वम् सय । मनः एव-मन ही के स्वरूप हैं । तस्मात् अपि-तिसी कारण । पृष्ठतः थपने नेत्र से न देखी हुई पीठ पर । उपस्पृष्टः-दृमरे के हाथ से मुश्रा हुभा। + पुरुषानुरुप । + मनसा-अपने मन करके । विजानाति- जानता है कि मेरी पीठ को किसी ने दृथा + अयथय । + वाक्-वाणी का स्वरूप । + इति-इस प्रकार | + कथ्यत: कहा जाता है । यःजो। कश्च कोई यानी वर्गास्मक और ध्वन्यात्मक । शब्दः शब्द है। सा=बह । पब-ही। वाक्- वाणी है यानी वाणी का स्वरूप है। एपा हि यमी वाणी निश्चय करके । अन्तम् निर्णय के अन्त तक । श्रायत्ता-पहुँची हुई है। हिक्योंकि । एपा=यह वाणी । + अन्येन न प्रकाश्या और करके नहीं प्रकाश होने योग्य है। + अय-प्रय । + प्राण प्राण + उच्यते-कहा जाता है नासिका से हृदय तक चलनेवाला वायु । अपान: नाभि से नीचे तक जानेवाला वायु । व्याना-प्राण और सपान को नियम में रखनेवाला वायु । उदान:=पैर से लेकर मस्तक तक अध्य- संचारी वायु । समानः ग्वाये हुये अन्न को पचानेवाला वायु । + एते थे | + पञ्चधा-पांच प्रकार के । + प्राण प्राण हैं। + च और । इति अन: इस प्रकार का चलनेवाला । एतत्- यह । सर्वम्-सब । प्राणप्राण । एव-ही है। + अतः इस लिये । अयम्-यह । श्रात्मा जीवारमा। एतन्मयः एतन्मय है अर्थात् । वाङ्मयः बाणीमय है। मनोमया मनोमय है। प्राणमयःम्प्राणमय है। भावार्थ। हे सौम्य ! सृष्टि के आदि में जो पिता ने अपने लिये का स्वरूप । पाण-मुम्ब और