पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/१३५

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अध्याय १ ब्राह्मण ५. -3 तीन अन्नों को उत्पन्न किया वे तीन अन्न मन वाणी और प्राण हैं इसलिये हे. सौम्य ! जब किसी का मन और जगह चला जाता है तब वह कहता है कि मन और जगह होने के कारण मैंने इस. रूप को नहीं देखा, और फिर कहता है कि मन और जगह चले जाने के कारण मैंने किसी बात को सुना भी नहीं, हे प्रियदर्शन ! मन करके ही पुरुष देखता है, मन करके ही पुरुष सुनता है, यदि मन न हो तो वह न देख सकता है, न सुन सकता है, सुनो अब मैं मन के स्वरूप को कहता हूँ जो कामना है, संकल्प है, श्रद्धा है, अश्रद्धा है, सन्देह है, धृति है, अधृति है, लज्जा है, बुद्धि है, भय है वह सब मन ही के रूप हैं इसी मन करके उस पुरुप को सब वस्तुओं का ज्ञान होता है, अगर कोई पुरुप किसी की पीठ को छू दे तो उस पुरुप को पीठ देखने पर भी मन के द्वारा इस बात का ज्ञान हो जाता है कि किसी पुरुष ने मेरी पीठ को छूया है । हे सौम्य ! सुनो, अब मैं वाणी के स्वरूप को कहता हूँ जो शब्द है चाहे वह वर्णात्मक हो चाहे ध्यन्यात्मक हो उसका ज्ञान वाणी करके ही होता है, और उस शब्द के निर्णय के अन्त तक वाणी- ही पहुँचती है, जैसे मन प्रकाशस्वरूप है वैसे वाणी भी प्रकांशस्वरूप है, अब मैं प्राण के स्वरूप. को कहता हूँ तुम सावधान होकर सुनो। प्राण पाँच प्रकार का है उसके नाम प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान हैं, प्राण वह वायु है जो मुख से नासिका तक चलता है, अपान वह वायु है जो नाभि से नीचे को जाता है, व्यान वह वायु है जो प्राण और अपान को नियम में रखता है,