अध्याय १ ब्राह्मण ५ का ध्रुवा एवन्ध्रुव कला है जो सदा अचल रहती है। सावह प्रजापति । रात्रिभिः कलाओं करके । एवम्ही । आपूर्यते- पूर्ण किया जाता है। चोर । अपक्षीयते उन्हीं कलाओं करके ही क्षीण भी किया जाता है। + तता-तत्पश्चात् । साम्यही प्रजापति । अमावास्याम् रात्रिम्-अमावस तिथि को । एतया-इस । पोडश्या-सोलहवीं । कलया-कला के साथ । इदम्-इस । सर्वम्-सव प्राणभृत्-प्राणियों में । अनुप्रविश्य प्रवेश करके । प्रातः= दूसरे दिन प्रातःकाल । जायते उत्पन्न होता है। तस्मात् इस लिये । एताम्-इस । रात्रिम् अमावास्या की रात्रि को । प्राणभृतः जीवमात्र को । न विच्छिन्द्यात्-कोई न मारे । +च-और । कलासस्य-प्रदर्शनीय और स्वभावहिंस्य गिर- गिट के । प्राणम्प्राण को । अपि भी । एतस्याः एव-इसही । देवतायाः चन्द्र देवता के । अपचित्यै पूजा के लिये । +न एवन I + छिन्द्यात्-मारे । भावार्थ। हे सौम्य ! वही यह सोलह कलावाला संवत्सरात्मक प्रजा- पति है, और जैसे शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष की रात्रि मिलाकर पन्द्रह कला इसके घटते बढ़ते हैं, और सोलहवीं इसकी कला जो सदा अचल रहती है, और अमावस की तिथि को सोलहवीं कला से युक्त होकर सब प्राणियों के अन्दर प्रवेश करता है | और दूसरे दिन प्रातःकाल उत्पन्न होता है, इसी प्रकार यह पुरुप भी सोलह कलावाला है, इसके सोलह कलाओं में से पन्द्रह कला गौ, महिप, भूमि, हिरण्य, साम्रा- ज्यादि धन हैं, जो घटते बढ़ते रहते हैं और सोलहवीं इसकी कला श्रात्मा है जो घटने बढ़ने से रहित होकर अचल स्थित
पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/१४७
दिखावट