पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/१४९

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अध्याय १ ब्राह्मण ५ १३३ वित्तम्-धन गौ आदि । एव-अवश्य । पञ्चदश कला-पन्द्रह कला के तुल्य है। च-नौर । अस्य उसका । अामा-श्रात्मा । एव-निश्चय करके । पोडशी-सोलहवीं । कला-कला ध्रुव के तुल्य अटल है । सःबह पुरुप । वित्तेन गौ श्रादि धन करके । एव-ही । आपूर्यते-बढ़ता है । + च-और । अप- क्षीयते-घट जाता है । यदि-अगर । यत्-जो। अयम्-यह । आत्मा-पारमा है । तत्-सो । एतत्-यह । नभ्यम्=नाभि- स्थानी है । च-और । यत्-जो । वित्तम्-गौ श्रादि धन है । प्रधिः वह प्रधि के समान है । तस्मात् इस कारण । यद्यपि यद्यपि । अस्य-इसका । सर्वज्यानिम्-सर्वस्व हानि को । जीयते-प्राप्त हो जाय । + तथापितो भी उसकी । +न + क्षतिः कोई क्षति नहीं है । चेत्-अगर । आत्मनामात्मा करके । + सा=वह । जीवति-जीता हुअा हो। इति-ऐसी हालत में । श्राहुः एव लोग उनके बारे में यही कहेंगे कि । सः- यह केवल । प्रधिना-प्रधिस्थानी धन से । अगात्-क्षीणता को प्राप्त हुआ है पर थात्मा करके अब भी वली है। भावार्थ । हे सौम्य ! जैसे सोलह कलायुक्त संवत्सरात्मक प्रजापति है वैसे ही यह सोलह कलायुक्त पुरुष भी है, और जैसे प्रजापति के पन्द्रह कला यानी प्रतिपदा से अमावस के अर्धभाग तक घटते बढ़ते हैं वैसे ही इस ज्ञानी पुरुप के भी गौ आदि धन बढ़ते घटते हैं, और जैसे प्रजापति का सोल- हवाँ कला यानी अन्तिम भाग अमावस और पूर्णमासी का ध्रुववत् अटल रहता है, उसी प्रकार इस पुरुष का भी सोल- हवाँ कला यानी आत्मा अटल बना रहता है, और इसी .