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पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/१५०

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वृहदारण्यकोपनिपद् स० अविनाशी आत्मा के आश्रय पन्द्रह कला स्थित रहते हैं, ये पन्द्रह कला अरा और परिधि के तुल्य हैं. और आत्मा चक्र के नाभिस्थानी है, जैसे नाभि के बने रहने पर निकले हुये अरे और परिधि दुरुस्त हो सक्तं हैं उसी प्रकार श्रात्मा के आश्रय गौ आदि धन भी रहते हैं, यदि यह धन एक- वार नष्ट भी हो जायें और आत्मा बना रहे तो फिर भी धन प्राप्त हो सक्ता है, और संसार में लोग ऐसा भी कहते हैं कि अरा और परिधि के तुल्य इस पुरुष के सब धन नष्ट हो गये हैं, परन्तु इसका आत्मा चक्रनाभि के तरह बना है जिस करके यह फिर अपने धन को पूर्ण कर लेगा ॥ १५ ॥ मन्त्रः १६ अथ त्रयो वाव लोका मनुष्यलोकः पितृलोको देव- लोक इति सोऽयं मनुष्यलोकः पुत्रोणैर जम्यो नान्येन कर्मणा कर्मणा पितृलोको विद्यया देवलोको देवलोको वै लोकाना श्रेष्ठस्तस्माद्विद्या प्रशसन्ति ।। पदच्छेदः। अथ, त्रयः, बाव, लोकाः, मनुष्यलोकः, पितृलोकः, देवलोकः, इति, सः, अयम् , मनुष्यलोकः, पुत्रेण, एच, जय्यः, न, अन्येन, कर्मणा, कर्मणा, पितृलोकः, विद्यया, देवलोकः, देवलोकः, वै, लोकानाम् , श्रेष्ठः, तस्मात् , विद्याम्, , प्रशंसन्ति ॥ अन्वय-पदार्थ । अथ-ौर । त्रयः तीन । वाव ही । लोकाः लोक हैं यानी। मनुष्यलोका-मनुष्यलोक । पितृलोकः-पितरलोक । - .