सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/१५१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अध्याय १ ब्राह्मण ५ १३५ +च-और देवलोकः इति-देवलोक के नाम से प्रसिद्ध है । तत्र तिनमें । सान्त्रही । अयम्-यह । मनुण्यलोका-मनुष्यलोक । पुत्रेण-पुत्र करके । एवम्ही । जय्यः जीतने योग्य है । न अन्येन कर्मणा-अन्य यज्ञादि कर्म करके नहीं । कर्मणा-कर्म करके । पितृलोकः पितरलोक । + च-और । विद्यया-विद्या करके । देवलोकादेवलोक ! + जय्यः जीतने योग्य है । देव- लोका देवलोक । वै-निश्चय करके । लोकानाम् तीनों लोकों में । श्रेष्ठः श्रेट है । तस्मात् इसी कारण । विद्याम्-विद्या की । + विद्वांसः विद्वान्लोग । प्रशंसन्ति-प्रशंसा करते हैं। भावार्थ । हे सौम्य ! तीन लोक हैं, यानी मनुष्यलोक, पितरलोक, देवलोक, मनुष्यलोक पुत्र करके प्राप्त होने योग्य है, और कों करके नहीं, यज्ञादि कर्मों करके पितरलोक प्राप्त होने योग्य है, और ज्ञान करके देवलोक प्राप्त होने योग्य है, कहे हुये तीनों लोकों में से देवलोक श्रेष्ठ है, क्योंकि देवलोक की प्राप्ति ज्ञान करके होती है, और यही कारण है कि ज्ञान की प्रशंसा विद्वान लोग करते हैं ॥१६॥ मन्त्रः १७ अथातः संपत्तिर्यदा प्रेष्यन्मन्यतेऽथ पुत्रमाह त्वं ब्रह्म त्वं यज्ञस्त्वं लोक इति स पुत्र प्रत्याहाहं ब्रह्माहं यज्ञोऽहं लोक इति य किंचानूक्तं तस्य सर्वस्य ब्रह्मत्येकता ये वै के च यज्ञास्तेपार सर्वेषां यज्ञ इत्येकता ये वै के च लोकास्तेपाः सर्वेपी लोक इत्येकतैतावद्वा इदर सर्वमे-