पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/१६६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

1 - बृहदारण्यकोपनिषद् स० यत्-इसी कारण । सान्यही । एपाम्यह। वायुः वायु। देवता-देवता । श्रनस्तम्-नही थस्न की इता-माल होता है। भावार्थ । हे सौम्य ! अध्यात्मवर्णन के पीछे अब देवतासम्बन्धी विषय कहा जाता है, इसको तुम सावधान होकर सुनो, में जलता ही रहुँगा । ऐसा व्रत अग्नि देवता ने धारण किया, मैं तपता ही रहुँगा ऐसा बन सूर्य देवता ने धारण किया, मैं प्रकाशित करता रहूँगा ऐसा व्रत चन्द्र देवता ने धारण किया, और इसी प्रकार और देवता भी अपने स्वभाव और कर्म अनुसार व्रत को धारण करते भय, हे सौम्य ! जैसे इन इन्द्रियों विषे और प्राणदेवताओं विपे मुख्य प्राण श्रेष्ठ है वैसे ही इन अग्नि आदि देवताओं विषे वायु देवता श्रेष्ट है, क्योंकि और देवता अपने कार्य करते करते थक जाते है, परन्तु वायु देवता अपने कार्य के करने में कभी नहीं थकता है, और यही कारण है कि वह वायु देवता कामी अस्त को नहीं प्राप्त होता है ।। २२ ।। मन्त्रः २३ अथैप श्लोको भवति यतश्चोदेति सुर्योऽस्तं यन च गच्छत्तीति माणाद्वा एष उदेति प्राणेऽस्तमेंति तं देवा- श्चक्रिरे धर्म५ स एवाद्य स उ व इति यहा एतेऽमुध्रियन्त तदेवाप्यद्य कुर्वन्ति तस्मादेकमेव व्रतं चरेत्पाण्याचैत्रा- पान्याच चेन्मा पाप्मा मृत्युराप्नुवदिति या चरेत्समापि- पयिपेत्तेनो एतस्यै देवताय सायुज्य सलोकतां गच्छति ॥ इति पञ्चमं ब्राह्मणम् ॥ ५ ॥