१५२ बृहदारण्यकोपनिषद् स० केवल एक । एवम्ही । व्रतम्-व्रत को । चरेत् पुरुष करें । चौर । + यथा जैसे । प्राण्यात्-प्राण व्यापार करता है। च-और ! + यथा जैसे । अपान्यात्-श्रपान व्यापार करता है। + तथा वैसे । एव-ही । + सा=यह पुरुष भी अपना ग्रन । + कुर्यात्-करता कि । पाप्मा पापल्प । मृत्यु मृत्यु । मा मुझको यानी उसको । चेत् श्राप्नुवत्-न प्राप्त होवे । उौर । यंत्-जिस व्रत को । चरेत्-पुरुष करे । समापिपयिषेत्-उस घ्रत के समाप्ति की इच्छा भी रक्खे । उ क्योंकि । तनउसी व्रत करके । + सा=यह उपासक । एतस्यै-इस । देवतायै-प्राण- देवता के । सायुज्यम्सायुज्यलोक को और । सलोकताम् = सामीप्यलोक को । गच्छति-प्राप्त होता है। भावार्थ। . हे सौम्य ! प्रश्न होता है कि कहाँ से सूर्य उदय होता है, और क्रिसमें लय होता है, इसका उत्तर यही मिलता है कि यह सूर्य प्राण से ही उदय होता है, और प्राण में ही लय होता है और जैसे सूर्य देवता ने अहर्निश लगातार चलने का व्रत किया है, उसी प्रकार वागादि देवताओं ने भी व्रत किया है, और जैसे सूर्य का जो व्रत आज है वही कल रहेगा, वैसे ही व्रत इन देवताओं का भी है, और व्यतीत काल में जिस व्रत.को वागादि देवताओं ने धारण किया था, उसी व्रत को आजकल भी वे धारण किये हैं, इसी कारण .हे सौम्य ! पुरुष एक ही व्रत को धारण करे, और जैसे प्राण अपान अपने व्यापार को किया करते हैं वैसे ही वह 'पुरुप भी अपने व्रत को धारण किया करे, ऐसा करने से पापरूप मृत्यु कभी उसके पास न आवेगा, हे सौम्य ! जिस
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