पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/१९२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१७६ बृहदारण्यकोपनिषद् स० दिशाओं में । पुरुषः-पुरुष है । अहम् मैं । एतम् इसको । एवम्ही । ब्रह्म-नस । इतिमान करके । उपाले-उपासना करता हूं । इति-ऐसा । + श्रुत्वा-मुनकर । सायद । - प्रसिद्ध । अजातशत्रु:-अजातशत्रु रामा । उवाच-बोला कि एतस्मिन्-इस ग्रह चिपे । मा मा संवदिष्टाः-ऐसा मत कहो, ऐसा मत कहो।+ एतत्-यह 1 + ब्रह्म यस । ननहीं है। + अयम्-यह । अनपगा-नहीं त्याग करनेवाला । द्वितीयः- दूसरा दिशागत पुरुष है । वै-निश्चय करके । अहम् मैं । इति- ऐसा । + मत्वा-मान कर । एतम्-एमकी । उपास-उपासना करता हूं। + च-और । य:जो कोई 1 + अन्यः-धन्य पुरुष । + एव-भी। एतम्-इसकी। एवम्-इस प्रकार । उपास्ते उपासना करता है । सःवह । एव-भी। द्वितीयवान-द्वितीय- वान् । भवति होता है । अस्मात् इससे । गण:-पुत्र, पशु श्रादि समुदाय । न-नहीं। छिद्यते नष्ट होते हैं यानी वे सदा बने रहते हैं। भावार्थ । वह प्रसिद्ध गगंगोत्री बालाकी बोला कि हे राजन् ! जो चारों दिशाओं में पुरुप है, वही ब्रह्म है, उसी को मैं ब्रह्म मानकर उसकी उपासना करता हूं, ऐसा सुनकर अजात- शत्रु राजा बोला हे अनूचान, ब्राह्मण ! यह तुम क्या कहते हो, यह ब्रह्म नहीं है, यह निश्चय करके नित्यसम्बन्धी दिशागत दूसरा वायुरूप पुरुष है, मैं उसको ऐसा समझकर उसकी उपासना करता हूं. हे ब्राह्मण ! जो कोई इसको इस प्रकार जानकर इसकी उपासना करता है, वह भी द्वितीयहीन नहीं होता है, और इसके पुत्र पशु आदि . .