पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/१९९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अध्याय २ ब्राह्मण १ १८३ इति=इतना। + उक्त्वा कहकर । तम्-उसके । पाणी हाथ को। श्रादाय-पकड़ कर । उत्तस्थौ उठ खड़ा हुआ । और । तौ-वे दोनों। सुप्तम्-किसी सोये हुये । पुरुषम् पुरुप के पास। आजम्मतुः याये । + च-और । तम्-उस सोये हुये पुरुप को। एनैः-इन । नामभिः नामों से । आमन्त्र- याञ्चक्रे जगाने के लिये पुकारने लगे । बृहन्-हे श्रेष्ठपुरुप!। पाण्डरवास हे श्वेतवस्त्र के धारण करनेवाले !। सोम है सोम!राजन् हे राजन् ! । उत्तिष्ठ-जागो। परन्तु-परन्तु । सः वह सोया हुश्रा पुरुप । न-नहीं। उत्तस्थौ उठा। हतब । पाणिना-हाथ से । आपेपम्-दवा ददाकर । तम्-उसको । बोधयाञ्चकार-गाया ।+ तदा तव । सः वह । उत्तस्थौ जग उठा। भावार्थ। इस पर हे सौम्य ! राजा अजातशत्रु ने जवाब दिया कि हे वालाकी ! यदि ब्राह्मण क्षत्रिय के पास इस आशा से जाय कि वह क्षत्रिय मुझको ब्रह्म का उपदेश करेगा तो उसका ऐसा करना शास्त्रविरुद्ध है, परन्तु मैं तुमको अवश्य ब्रह्म विपे कहूंगा, इतना कहकर उसका हाथ पकड़ कर उठ खड़ा हुआ, और दोनों एक सोये हुये पुरुष के पास आये, और उसके जगाने के लिये ऐसे पुकारने लगे कि, हे श्रेष्ठपुरुप ! हे श्वेतवस्त्र धारण करनेवाले ! हे चन्द्रमुख ! हे प्रकाशबाले ! जागो, जागो, उठो, परन्तु जब वह नहीं जागा, तब हाथ से उसके शरीर को दबा दबाकर उसको जगाया, तब वह उठ बैठा ॥ १५ ॥ ,