पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/२०८

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११२ बृहदारण्यकोपनिपद्' स० किये हुये तन्तुओं के आश्रय विचरता है, उसी प्रकार ब्रह्म भी अपने से किये हुये जगत् के आश्रय विचरता हुना प्रतीत होता है, और जैसे अग्नि से छोटी छोटी चिन- गारियां इधर उधर उड़ती हुई दिखाई देती हैं, उसी प्रकार इस जीवात्मा से सब वागादि इन्द्रियां, सब भूरादि लोक, सब सूर्यादि देवता, आकाशादि पञ्चमहाभूत निकलते हैं, और दिखाई देते हैं, हे सौम्य ! उसका ज्ञान ही सत्य का सत्य है, और ऐसे ही वागादि इन्द्रियां भी उसके आश्रय होने के कारण सत्य हैं, नहीं तो नाशवान् हैं और वह इनमें अविनाशी है ॥ २० ॥ इति प्रथमं ब्राह्मणम् ॥ १॥ अथ द्वितीयं ब्राह्मणम् । यो ह वै शिशुछ साधान सप्रत्याधान सस्थूण, सदामं वेद सप्त ह द्विषतो भ्रातृव्यानवरुणद्धि श्रयं वाव शिशुर्योऽयं मध्यमः प्राणस्तस्येदमेवाऽऽधानमिदं प्रत्या- धानं प्राणः स्थूणाऽन्नं दाम ॥ पदच्छेदः।. यः, ह, वै, शिशुम् , साधानम् , सप्रत्याधानम् , सस्थूणम् , सदामम् , वेद, सप्त, ह, द्विषतः, भ्रातृव्यान् , अवरुणद्धि, श्रयम्, वान; शिशुः, यः, अयम् , मध्यमः, प्राणः, तस्य,