पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/२१०

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बृहदारण्यकोपनिषद् स० शरीर को ही आधान कहा है, क्योंकि इस शरीर म ही प्राण रहता है, एक स्थान के अन्दर और कई जगह रहने की हो तो उसे प्रत्याधान कहते हैं । यह शिर प्रत्याधान है, क्योंकि इसमें प्राण के रहने की जगह सात हैं, यानी दो आँख, दो कान, दो नासिका, एक रसना है, यह अन्नोत्पन्न बल ही प्राणरूपी बछड़े का खूटा है, और अन्न इसका भोज्य है जैसे सूंटे से बँधा हुआ बछड़ा घास फूस आदि जो उसका मोग है खाकर बली होता है, वैसे ही यह प्राण शरीर से बँधा हुआ अनेक प्रकार के भोजन करके बली बनता है ।।१।। मन्त्रः २ तमेताः सप्ताक्षितय उपतिष्ठन्ते तद्या इमा अक्षन्लो- हिन्यो राजयस्ताभिरेन, रुद्रोऽन्वायत्तोऽथ या अक्षन्ना- पस्ताभिः पर्जन्यो या कनीनिका तयाऽऽदित्यो यत्कृष्णं तेनाग्निर्यच्छुक्लं तेनेन्द्रोऽधरयैनं वर्तन्या पृथिव्यन्वायत्ता द्यौरुत्तरया नास्यान्नं तीयते य एवं वेद ॥ पदच्छेदः। तम् , एताः, सप्त, अक्षितयः, उपतिष्ठन्ते, तत् , याः, इमाः, अक्षन् , लोहिन्यः, राजयः, ताभिः, एनम् , रुद्रः, अन्वायत्तः, अथ, याः, अक्षन्, आपः, ताभिः, पर्जन्यः, या, कनीनिका, तया, श्रादित्यः, यत् , कृष्णम् , तेन, अग्निः, यत् , शुक्लम्, तेन, इन्द्रः, अधरया, एनम् , वर्तन्या, पृथ्वी, अन्वायत्ता, द्यौः, उत्तरया, न, अस्य, अन्नम् , क्षीयते, यः, एवम्, वेद ॥ - -