पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/२१६

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होता है २०० वृहदारण्यकोपनिषद् स० अनियत्रि है। हिक्योंकि । बाचा-यागी कर । अनम: अन्न । अद्यत-साया जाता है। + तस्मात-इसलिये।+अन्य- इस वाणी का। -प्रमिद् निश्चग करके । नाम-नाम । अत्तिः सत्ति है। यत्-गो । गततया है। तन्-वाही । अत्रि:=प्रति है। इति पेमा । य: | पवम-को हुगे प्रकार । वेद मानना है। साव सर्वस्य-पय यस का। अत्ताभाना । भवति-होना । + च-चार । सर्चम्-मय । अनम्-अन्न । अस्य-सका। + भोज्यम-मोज । भवति- भावार्थ । हे प्रियदर्शन ! गुरु शिष्य से कहता है कि ये दोनों कर्ण गौतम और भरद्वाजऋपि है, यानी यह दहिना कर्ण गौतम है, और यह बायाँ कर्ण भरद्वाज है, उसी तरह नेत्रों को अँगुली से बताकर कहता है कि ये दोनों विश्वामित्र और जमदग्नि हैं यानी यह नो दहिना नेत्र है वह विश्वामित्र है, और जो यह नायाँ नेत्र है वह जमदग्नि है, फिर दोनों नासिका को अँगुली से दिखाकर कहता है, हे शिष्य ! ये वसिष्ठ और कश्यप हैं, यानी जो यह दहिनी नासिका है, वह वसिष्ठ है, और जो बाई नासिका है, वह कश्यप है, हे शिष्य ! वाणी निस्सन्देह अत्रि है, क्योंकि वाणी करके ही अन्न खाया जाता है, इसी का प्रसिद्ध नाम अत्ति है, जो अत्ति है, वही अत्रि है, जो उपासक इस प्रकार जानता है वह सब अन्नों का भोक्ता होता है, और सव अन्न इसका भोज्य होता है ॥ ४ ॥ इति द्वितीयं ब्राह्मणम् ॥ २ ॥ .