अध्याय २ ब्राह्मण ३ २०१ अथ तृतीयं ब्राह्मणम् । मन्त्रः१ दे वाव ब्रह्मणो रूपे मृत्तं चैवामः च मत्यै चामृतं च स्थितं च यच्च सच त्यं * च ।। पदच्छेदः। दू, बाब, ब्रह्मणः, रूपे, मूर्तम् , च, एव, अमूर्तम्, च, मर्त्यम्, च, अमृतम् , च, स्थितम् , च, यत्, च, सत् , च, त्यम्, च ॥ अन्वय-पदार्थ। ब्रह्मणः ब्रह्म के । वाव-निश्चय करके । वेदो। रूपे-रूप हैं। मूर्तम्-एक मूर्तिमान् । च-और । अमूर्त्तम् दूसरा प्रमूर्ति- मान है । मर्त्यम्-रक मरणधर्मी । च-और । अमृतम्-दूसरा अमरधर्मी । स्थितम्-एक अचल । चौर । यत्-दूसरा चल । सत्-एक व्यक्त । च-और । एव-निश्चय करके । त्यम्- दूसरा अव्यक्त । भावार्थ । हे सौम्य ! ब्रह्म के दो रूप हैं, एक मूर्तिमान् , दूसरा अमूर्तिमान् , एक मरणधर्मी, दूसरा अमरधर्मी, एक चल, दूसरा अचल, एक व्यक्त, दूसरा अव्यक्त, कार्यरूप,करके जगत् के अथवा ब्रह्माण्ड के जितने रूप हैं सब मूर्तिमान् हैं, और इसीलिये नाशवान् भी हैं, परन्तु जो परमाणुरूप से सृष्टि के नाश होने पर स्थित रहते हैं, वे अमूर्तिमान्
- इस मन्त्र में चकार श्राठ हैं जिनमें से चार का अर्थ लिखा गया है
और चार छोड़ दिये गये।