पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/२३१

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अध्याय २ ब्राह्मण ४ २१५ अरे, नः, भापस एह्यास्स्व व्याख्यास्यामि ते व्याचक्षाणस्य तु मे निदिध्यासस्वति ॥ पदच्छेदः। सः, इ, उवाच, याज्ञवल्क्यः, प्रिया, बत, सती, प्रियम् , भापसे, ‘एदि, आस्व, व्याख्यास्यामि, ते, व्याचक्षाणस्य, तु, मे, निदिध्यासस्त्र, इति ।। अन्वय-पदार्थ । + इति-ऐसा । + श्रुत्वा-सुन कर ! सा=वह ह–प्रसिद्ध । याज्ञवल्क्यः याज्ञवल्क्य ।, उवाच-योले कि । श्ररे हे प्रिय मैत्रेयि ! नातू मेरी । प्रिया-प्यारी । सती-पतिमता स्त्री है। + त्वम्-तू । वत-प्रेम के साथ । प्रियम्-प्रिय । मापसे-बोलती है। पहि-श्रावो । आस्व-बैठो। व्याख्यास्यामि तेरे लिये मुक्ति के साधन को कहूँगा। तु-पर । व्याचक्षाण-व्याख्यान करते हुये । मेरी । + वाक्यानि-बातों पर । निदिध्यासस्व इति ध्यान करके सुनो। भावार्थ। है प्रियदर्शन ! ऐसा सुनकर वह प्रसिद्ध याज्ञवल्क्य महाराज बोले कि हे मैत्रेयि ! तू मेरी पतिव्रता स्त्री है, तू सदा मेरे साथ प्रियभापण करती रही है और अब भी प्रिय बोलती है, हे प्यारी ! उठो, एकान्त बिषे चलों, तेरी मुक्ति के लिये मुक्ति के साधन को कहूंगा, तू मेरी बातों पर ध्यान देकर सुन, तेरा कल्याण अवश्य होगा ।।४।। मन्त्रः स होवाच न वा अरे पत्युः कामाय पतिः प्रियो