अध्याय २ ब्राह्मण ४ २२१ - होते हैं। हे प्रियमैत्रेयि ! सबकी कामना के लिये सवको सब प्यारे नहीं होते हैं, किन्तु सब लोगों की आत्मा की कामना के लिये सब प्रिय होते हैं। इस लिये हे प्रियमैत्रेयि ! यह अपना आत्माही दर्शन के योग्य है, यही गुरु और शास्त्र करके सुनने योग्य है, यही विचारने योग्य है, यही निश्चय करने योग्य है। हे प्रियमैत्रेयि ! इस आत्मा के दर्शन से, सुनने से, समझने से, जानने से यावत् कुछ ब्रह्माण्ड विपे है सब जाना जाता है । हे प्रियमैत्रेयि ! अपने आत्मा को जानो, इसीसे तुम्हारा कल्याण होगा, वही सब वस्तु प्रिय है, जिससे इस आत्मा को श्रानन्द मिलता है क्योंकि यह आत्मा आनन्दस्वरूप है इससे अतिरिक्त कहीं आनन्द नहीं है, जो कुछ है वह आत्मा ही है ॥ ५ ॥ मन्त्रः ६ ब्रह्म तं परादायोऽन्यत्राऽऽत्मनो ब्रह्म वेद क्षत्रत परादाद्योऽन्यत्राऽऽत्मनः क्षत्र वेद लोकास्तं परादुर्यो- ऽन्यत्राऽऽत्मनो लोकान्वेद देवास्तं परादुर्योऽन्यत्राऽऽत्मनो देवान्वेद भूतानि तं परादुर्योऽन्यत्राऽऽत्मनो भूतानि वेद सर्व तं परादाद्योऽन्यत्राऽऽत्मनः सर्व वेदेदं ब्रह्मेदं क्षत्र- मिमे लोका इमे देवा इमानि भूतानीद, सर्व यदय- मात्मा ॥ पदच्छेदः। ब्रह्म, तम् , परादात् , यः, अन्यत्र, आत्मनः, ब्रह्म, वेद, क्षत्रम्, तम्, परादात्, यः, अन्यत्र, आत्मनः, क्षत्रम् , बेद,
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