२४२ बृहदारण्यकोपनिषद् स० अन्वय-पदार्थ । अयम्=यह । वायुः वायु । सर्वपाम्-सब । भूतानाम् महाभूतों का। मधु-सार है। + तथा-तैसे हो । अस्य-इस । वायोबायु का। सर्वाणि पब । भूतानि-महाभूत । मधु- सार हैं । च-और। यःजो। अस्मिन्-इस । वायौवायु चिपे । अयम्-यह । तेजोमय:प्रकाशस्वरूप । अमृतमय:- अमरधर्मी। पुरुपः-पुरुप है। चौर । यःजो । अध्यात्मम् शरीर में । अयम्-यह । प्राणः प्राणरूप । तेजोमया-प्रका- शामक । अमृतमया अमर । पुरुपान्नुरुप है। अयम्-यही हृदयगत पुरुष । एव-निश्चय करके । सःवह पुरुष है जो वायु विप रहनेवाला है। यःजो।अयम्=यह हृदयगत । आत्मा-मात्मा (पुरुप है)। इदम्न्यही । अमृतम्:अमरधर्मी है । इदम्- यही । ब्रह्मन्ब्रह्म है । इदम्-यही । सर्वम् सर्वशक्तिमान है । भावार्थ। याज्ञवल्क्य महाराज कहते हैं कि हे मैत्रेयि, देवि ! जैसे यह प्रत्यक्ष वायु सब महाभूतों का सार है वैसेही इस वायु का सब महा सार हैं यानी इसका सूक्ष्म अंश सब में प्रवेश है अथवा कारण कार्य एक ही हैं और हे मैत्रेयि ! जो वायु बिषे तेजोमय, अमृतमय पुरुष है और जो हृदय में और घ्राणइन्द्रियव्यापी, प्रकाशात्मक, अमरधर्मी पुरुष है ये दोनों निश्चय करके एक ही हैं, इसमें उसमें कोई भेद नहीं है और हे देवि ! जो यह हृदयगत पुरुष है अथवा आत्मा है, यही अमरधर्मी है, यही ब्रह्म है, यही सर्वशक्तिमान् है ।। ४ ।। मन्त्र: ५ अयमादित्यः सर्वेषां भूतानां मध्वस्यादित्यस्य .
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