अध्याय २ ब्राह्मण ५ २४७ अमृतमय । पुरुषः पुरुष है । अयम् एवम्यहा मनसम्बन्धी पुरुप । सा=बह चन्द्रमासम्बन्धी पुरुप है। चन्और । यः जी। श्रयम् यह । आत्मा-मनोव्यापी प्रात्मा है। इदम्यही । अमृतम्-अमर है । इदम् यही । ब्रह्म-ब्रह्म है । इदम् अही । सर्वम् सर्वशक्तिमान् है। भाचार्थ। याज्ञवल्क्य महाराज कहते हैं कि हे मैत्रेयि, देवि ! यह चन्द्रमा सब प्राणियों को प्रिय है, और इस चन्द्रमा को सब प्राणी प्रिय हैं, जो प्रिय होता है उसी की तरफ लोग देखा करते हैं, सब प्राणी चन्द्रमा की तरफ़ देखा करते हैं, इस लिये चन्द्रमा सबको प्रिय है, और चन्द्रमा भी सब की तरफ़ देखा करता है, इस लिये सब चन्द्रमा को प्यारे हैं, हे देवि ! जो चन्द्रमा विपे प्रकाशस्वरूप, अमरधर्मी पुरुष है. और जो इस शरीर में मनोव्यापी, तेजोमय, अमृतमय पुरुप है ये दोनों एकही हैं, और जो मनोव्यापी आत्मा है, यही अमर है, यही ब्रह्म है, यही सर्वशक्तिमान् है ॥ ७ ॥ मन्त्रः८ इयं विद्युत्सर्वेषां भूतानां मध्वस्यै विद्युतः सर्वाणि भूतानि मधु यश्चायमस्यां विद्युति तेजोमयोऽमृतमयः पुरुपो यश्चायमध्यात्मतैनसस्तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषोऽय- मेव स योऽयमात्मेदममृतमिदं ब्रह्मदछ सर्वम् । पदच्छेदः। इयम् , विद्युत् , सर्वेपाम् , भूतानाम् , मधु, अस्यै, विद्युतः, सर्वाणि, भूतानि, मधु, यः, च, अयम् , अस्याम् , विद्युति, . 7
पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/२६३
दिखावट