२६२ वृहदारण्यकोपनिषद् स० अन्वय-पदार्थ । + मैत्रेयि हे मैत्रेयि ! । पाथर्वणः पयर्ववेदी। दध्य- दध्यऋपि । अश्विभ्याम्-अश्विनीकुमारों के प्रति । तत्-उस इदम् इस । मधु-मधुनामक । प्रमविद्या को । उवाच-कहता भया । तत्-तिसी। एतत्-इसी दध्यद की कही हुई महाविद्या को: ऋपिः-एक ऋपि । पश्यन्-देखता हुधा । + अश्विनीकुमारी अश्विनीकुमारों से ।+ इति-ऐसा । अवोचत् कटना भया कि अश्विना हे अश्विनीकुमारो!+ युवाम्-तुम दोनों ने। यस्मै जिस।अथर्वाय-अथर्ववेदी । दधीचे-दध्यन के लिये। श्रश्व्यम्- शिर:-अश्व के शिर को । प्रत्यैरयतम् प्राप्त कराया है। सः उसी दध्यऋपि ने । वाम्-तुम दोनों के लिये। ऋतायन्+सन्न्यपने वचन को पालन करता हुा । मधु अवोचत्-मधुविधा का उपदेश किया।+ चौर । दनौ हे शत्रुहन्ता अश्विनीकुमारो! यत्-जो । त्वाट्रम्-चिकित्सा शान-सम्बन्धी ज्ञान है । अपि और । + यत्-जो। कक्ष्यम्-प्रात्मविज्ञान है । + ते ठन दोनों को। वाम्-तुम दोनों के लिये । इति-इस प्रकार । +अवोचत्-उपदेश करता भया । भावार्थ । हे मैत्रेयि, देवि ! जिस मधुनामक ब्रह्मविद्या को अश्विनी. कुमारों के लिये अथर्ववेदी दध्यपि ने उपदेश किया उसी ब्रह्मविद्या के उपदेश को सुनकर एक ऋषि ने भी अश्विनी- कुमारों से ऐसा कहा, हे अश्विनीकुमारो! जिस दध्यमपि के शिर को काट कर तुम लोगों ने अलग कर दिया और उसकी जगह पर घोड़े के शिर को लाकर लगा दिया, तिसी
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