अध्याय ३ ब्राह्मण १ २७५
भ्रमिष्ठ प्रतिज्ञा स्वीकार करने के कारण। श्रश्वलाअश्वतनामक । होता होता ने। प्रष्टुम् प्रश्नों का करना । दध्र-प्रारम्भ किया। . भावार्थ । हे सौम्य ! जब राजा जनक ने देखा कि सव ब्राह्मण एकत्र हो गये हैं तब उनसे बोले कि हे माननीय, पूज्य, ब्राह्मणो ! आप लोगों में से जो अतिशय करके ब्रह्मविद् हों वे इन गौत्रों को अपने घर ले जायँ, इतना कह कर चुर होगये । यह सुनकर सब ब्राह्मण एक दूसरे की तरफ देखने लगे, पर उनमें से किसी को साहस न हुआ कि वह उन । गौओं को अपने घर ले जाय, जव याज्ञवल्क्य ने देखा कि कोई लेने को समर्थ नहीं होता है, तब उन्होंने अपने प्रिय शिष्य सामश्रवा से कहा कि हे प्रिय ! तू इन गौओं को मेरे घर ले जा, ऐसा सुनकर वह उन सब गौओं को लेकर याज्ञ- वल्क्य के'घर चला गया, यह देख कर समस्त ब्राह्मण क्रुद्ध हो एकबारगी बोल उठे कि यह याज्ञवल्क्य हम लोगों में अपने को अतिब्रह्मनिष्ठ और ब्रह्मविद् कैसे कह सकता है ? इसके पीछे राजा जनक का होता अश्वल नामक ब्राह्मण क्रोधित होकर याज्ञवल्क्य से कहता है प्रो. याज्ञवल्क्य ! क्या तूही सबसे श्रेष्ठ ब्रह्मवेत्ता है । याज्ञवल्क्य ने कहा हे होता, अश्वल ! मैं अपने को ऐसा नहीं समझता हूं, मैं ब्रह्मवेत्ता पुरुषों का दास हूं, उनको मैं नमस्कार करता हूं, मैंने अपने को गौओं को कामनावाला और आप लोगों को गौओं की कामना से रहित पाकर गौओं को अपने घर भेज दिया है; ऐसा सुनकर अश्वल ने कहा यह बात नहीं तू अपने को