पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/२९३

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अंध्याय ३ ग्रामण .. २७७ + उवाच-कहते भये कि । + अश्वल हे अश्वल ! ।होत्र- विजा होतारूप ऋस्त्रिज् । अग्निना-ऋस्विरूप अग्नि । वाचा-भग्निरूप वाणी करके ! +स:वह यजमान । + मुच्यते मृत्यु के पाश से मुक्त होआता है। + हिक्योंकि । यज्ञस्य- यज्ञ का। होता होता ही । वाक्वाक्य है । तत्-इस लिये। इयम् यह । याजो। वाक्वाक्य है । साम्यही । श्रयम्-यह । अग्निाअग्नि है । सापही। होता होता है। सम्वही होतारूपी अग्नि । मुक्तिः मुक्ति है यानी मुक्ति का साधन है ।+चऔर । साम्वही मुक्ति यानी वही मुक्ति का साधन । अतिमुक्ति: अतिमुक्ति है। भावार्थ । हे याज्ञवल्क्य ! यज्ञ में जो कुछ वस्तु दिखाई देती हैं, वे सब मृत्यु से ग्रसित हैं, ऐसी हालत में किसके द्वारा यज- मान मृत्यु की पाश से छूट जाता है, इसके उत्तर में याज्ञ- वल्क्य कहते हैं कि होता नामक ऋत्विज् की सहायता करके यजमान मुक्त हो जाता है, वह होता अग्निरूप है, अग्नि से तात्पर्य वाक्य से है, यानी जब होता शुद्ध वाणी से उदात्त, अनुदात्त, स्वरित स्वरों के साथ वैदिकमन्त्रों का उच्चारण यज्ञ विषे करता है तब देवता प्रसन्न हो कर यजमान को स्वर्ग में ले जाते हैं, इस लिये है अश्वल! वाणी ही यज्ञ का होता है, वहीं अग्नि है, और वही मुक्ति का साधन है ॥३॥ मंन्त्र: ४ याज्ञवल्क्येति होवाच गदिदई सर्वमहोरात्राभ्या- माप्तसर्वमहोरात्राभ्यामभिपन्न केन यजमानोऽहोरात्र- -